सामासिक संस्कृति-संपृक्त भारत की विविध भाषाओं में एक ही भाव प्रवाहित होता है- प्रो. शंभुनाथ तिवारी
टीएनएन समाचार : भारतवर्ष बहुभाषिकता एवं सामासिक संस्कृति का सम्मान करनेवाला विविधताओं से भरा हुआ देश है। मिले-जुले परिवेश एवं सामासिकता की भावना के कारण हिंदुस्तान की संस्कृति बहुलतावादी संस्कृति के रूप में जानी-पहचानी जाती है! हमारी सामाजिक संस्कृति का तानाबाना ऐसे विविधवर्णी धागों से निर्मित है कि उसका यदि एक धागा भी टूटा, कमजोर या बदरंग हुआ, तो इसकी भव्यता, सुंदरता और समरसता पर गहरा असर दिखाई दे सकता है! यहाँ की बहुलसंस्कृति (मल्टीकल्चरलिज्म) की झलक समाज में जहाँ भी, जिधर भी नज़र दौड़ाइए, वहीं दिखाई दे जाएगी! हिंदुस्तान की क़ौमी यकजहती, आपसी भाईचारा, सामाजिक समरसता के लिए ज़रूरी है कि उसकी बहुलतावादी संस्कृति पर किसी तरह की कोई आँच न आए! भारत की एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए इस मल्टी डाएमेंशनल/मल्टी कल्चरल स्वरूप का सम्मान सुनिश्चित किया जाना ज़रूरी है! यह विचार अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग के वरिष्ठ प्रोफेसर शंभुनाथ तिवारी ने गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय, वडोदरा में आयोजित भारतीय हिंदी प्राध्यापक परिषद के वार्षिक सम्मेलन में व्यक्त किए!
उन्होंने कहा कि भारतीय समाज को बहुलतावादी सांस्कृतिक परिवेश में एक वृहद् ‘संस्कृति-संकुल’ का जो निर्माण हुआ था, उसे विभिन्न धर्मों, जातियों, समुदायों, वर्गों, समूहों के कई सौ वर्षों से साथ-साथ रहने और आपसी व्यवहार करने का परिणाम कहा जा सकता है। सामाजिक विषमता एवं सांस्कृतिक विविधता के बावजूद भारत की अनेकता में एकता की सामासिक समझ उसकी वैश्विक पहचान को सुनिश्चित करती है। भारत का सांस्कृतिक इतिहास अनेक संस्कृतियों, समुदाओं, वर्गों से संबद्ध लोगों के एक लंबे कालखंड और अंतराल में विश्व के अलग- अलग भूभागों से आ आकर बसने तथा अपनी-अपनी संस्कृतियों को यहाँ के सामाजिक परिवेश में पुनर्स्थापित एवं प्रतिष्ठापित करने का इतिहास कहा जा सकता है। इसलिए जितना सांस्कृतिक वैविध्य भारतीय समाज में पाया जाता है, उतना शायद ही दुनिया के किसी अन्य देश में पाया जाता हो! भारत की भौगोलिक क्षमताओं, समृद्धि एवं अन्य विभिन्न कारणों ने विश्व की अनेक जातियों को और समुदायों को अपनी ओर आकृष्ट किया है। अँगरेजों के भारत में आने से पहले हिंदू-मुसलमान के कई सौ वर्षों से साथ-साथ रहने और आपसी मेलजोल से एक लंबे अंतराल में यहाँ जो संस्कृति विकसित हुई, उसे समन्वित रूप से सामासिक संस्कृति के रूप में रेखांकित किया जा सकता है। भारत की इस संस्कृति के निर्माण में यहाँ की आदिम प्राचीन जातियों, द्रविणों, आर्यों, मुसलमानों, पारसियों अँगरेजों आदि का मिश्रित एवं समन्वित योगदान कहा जा सकता है।
हमारी बहुलतावादी संस्कृति जाति-धर्म-भाषा-साहित्य में समन्वय स्थापित कर हमारे सामाजिक तानेबाने को मज़बूत और विविधरंगी बनाती है! इसका ही परिणाम है कि इस देश की कला-भाषा और शिल्प को समृद्ध बनाने में हिंदू-मुस्लिम-सिख-इसाई-पारसी सभी का योगदान अविस्मरणीय है! सदियों से हमारे देश में अनेक धर्म और जातियों के लोग शांति और सद्भाव के वातावरण में एक साथ मिलजुल कर रहते आए हैं। बिना किसी डर के सभी को अपनी बात कहने की आज़ादी के साथ अलग-अलग विचारों को व्यक्त करने की स्वतंत्रता हमारे खुलेपन के बुनियादी भारतीय लोकाचार और मानव विचारों के लिए सम्मान को दर्शाती है। बेशक हमारे देश में अनेक भाषाएँ हैं, जो हमारी भाषायी विविधता को दर्शाती हैं, पर उनमें सार्वभौमिक रूप से एक ही भावना का संचार होता है। उदाहरण के लिए भक्तिकालीन सांस्कृतिक चेतना का प्रवाह समान रूप से भारत की कमोबेश सभी भाषाओं में दिखाई देता है। यही इस देश की सबसे बड़ी सांस्कृतिक विशेषता है, जिसका हम सभी को सम्मान करना चाहिए!
उक्त कार्यक्रम में परिषद के महासचिव प्रो. संजीवकुमार दुबे के निर्देशन तथा डॉ. गजेंद्र मीणा के संयोजन में आयोजित समारोह में देश भर के 18 प्रांतों के हिंदी प्राध्यापकों की उपस्थिति में गुजराती के प्रख्यात साहित्यकार ज्ञानपीठ सम्मान प्राप्त प्रो. रघुवीर चौधरी तथा विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. रमाशंकर दुबे विशेष रूप से उपस्थित थे।