यौमे वफात सर सैयद: हमें अलीग कहलाने का शौक है बहुत, मगर सर सैयद के तालीमी मिशन को आगे बढ़ाने की फिक्र व जद्दोजहद नहीं : एम. डब्ल्यू. अंसारी (आई.पी.एस) रिटायर्ड. डी.जी
टीएनएन समाचार : सर सैयद अहमद खान, एक ऐसा नाम जो बर्रे सग़ीर के मुसलमानों की तारीख़ में सुनहरे हुरूफ़ से लिखा
गया है। वो न सिर्फ़ एक मुस्लिह, मौअल्लिम और मुदब्बिर थे बल्कि उन्होंने वो बुनियाद रखी जिस पर जदीद
मुस्लिम मुआशरा इस्तिवार हुआ। 17 अक्तूबर को उनकी पैदाइश की तकरीबात बड़े जोश व खरोश से मनाई
जाती हैं, हर अलीग फ़ख़्र से अपनी निस्बत का इज़हार करता है, सेमिनार्स होते हैं, तक़रीरें की जाती हैं, पुर लुत्फ़
दावतों का एहतेमाम किया जाता है और अलीग बिरादरी का जोश व जज़्बा देखने काबिल होता है।
मगर अफ़सोस! 27 मार्च को सर सैयद का यौम-ए-वफ़ात है। हर साल ये दिन आता है और गुज़र जाता है,
कोई उन्हें याद नहीं करता कि यही वो दिन था जब सर सैयद ने हमेशा के लिए दुनिया को अलविदा कहा और
हम एक मुफक्किर व मुस्लिह मौअल्लिम से महरूम हो गए। क्या ये अलीग बिरादरी का दोहरा रवैया नहीं?
रमज़ान मुबारक का मुक़द्दस महीना चल रहा है होना तो ये चाहिए था कि सर सैयद डे (यौम-ए-पैदाइश
सर सैयद) की तरह तमाम अलीग बिरादरी इफ़्तार पर जमा होते और अपने मुहसिन को इस बाबरकत महीने में
कुछ इसाल-ए-सवाब करते, नैज़ उनके मिशन को आगे बढ़ाने के लिए लायह-ए-अमल तैयार करते जो इस वक़्त
के हालात का अहम तक़ाज़ा है।
किसी भी मुल्क की तरक़्क़ी में तमाम तबक़ात की यकसां शिरकत ज़रूरी होती है, मगर जब किसी ख़ास
तबक़े को मुसलसल नज़र अंदाज़ किया जाए, तो वो समाजी, तालीमी, और इक़्तिसादी लिहाज़ से पीछे रह जाता
है। हमारे मुल्क में पसमान्दा तबक़ात और ख़ास तौर पर मुसलमानों को पिछले कुछ सालों से मुख़्तलिफ़ शोबों में
नज़र अंदाज़ किया जा रहा है, जिसके नतीजे में उनकी तरक़्क़ी रुक गई है।
मुसलमानों की पसमान्दगी की वजहात में तालीमी अदम मुसावात, मुसलमानों में तालीमी पसमान्दगी
सबसे बड़ा मसला है। ये कहा जाता है कि मुसलमान पढ़ता लिखता नहीं, ये बिलकुल ग़लत और बे-बुनियाद है
बल्कि मुसलमानों को पढ़ने लिखने नहीं दिया गया और अब भी मयारी तालीमी इदारों की कमी, सरकारी स्कूलों
की ख़राब हालत, और ग़ुरबत के बाइस तालीमी मौक़ों में कमी मुसलमानों को पीछे धकेलती है। सरकारी व
निजी शोबों में मुसलमानों को रोज़गार के मौक़े कम फ़राहम किए जाते हैं, जिसकी वजह से वो माली तौर पर
मुस्तहकम नहीं हो पाते। कारोबारी मौक़ों और क़र्ज़ों की अदम दस्तियाबी भी एक बड़ी रुकावट है।
अलमिया ये भी है कि मुसलमानों की सियासी नुमाइंदगी भी इन्तेहाई कमज़ोर है, जिसकी वजह से उनके
मसाइल पॉलिसी साज़ी में कम अहमियत रखते हैं। सियासी असर व रसूख़ न होने के बाइस उनके मसाइल
अक्सर नज़र अंदाज़ कर दिए जाते हैं। इसके अलावा मुसलमानों के दरमियान ख़ुद भी समाजी और सक़ाफ़ती
सतह पर इमतियाज़ी सुलूक का मसला है। मुल्क की गोदी मीडिया में मुसलमानों की ग़लत तस्वीर कशी की
जाती है या की जा रही है, जिसके नतीजे में आवामी सतह पर उनके ख़िलाफ़ ता'स्सुब बढ़ रहा है और उनके
हुक़ूक़ मजीद मुतास्सिर हो रहे हैं।
अगर हम माज़ी के झरोकों में झाँक कर देखें तो हमें मालूम होगा कि सर सैयद अहमद ने किस तरह
अपनी पूरी ज़िन्दगी तालीमी व समाजी तरक़्क़ी के लिए वक़्फ़ कर दी। अलीगढ़ तहरीक ने मुसलमानों को जदीद
तालीम की तरफ़ राग़िब किया, उनके अंदर सोचने और समझने की नई रोशनी पैदा की। वो सिर्फ़ एक तालीमी
इदारा नहीं बना रहे थे बल्कि एक ज़ेहनी इंक़िलाब बरपा कर रहे थे, एक ऐसा इंक़िलाब जिसने मुसलमानों को
ज़वाल से निकाल कर तरक़्क़ी की राह पर गामज़न किया।
मगर सवाल ये है कि क्या अलीग बिरादरी ने अपने मुहसिन के यौम-ए-वफ़ात को वो इज़्ज़त दी जो उनके
शायान-ए-शान थी? क्या हमने 27 मार्च को कभी उसी अक़ीदत और एहतेराम से मनाने की कोशिश की जिस
तरह हम 17 अक्तूबर को मनाते हैं? सर सैयद की तालीमात का असल जौहर उनकी फ़िक्र और उनके उसूल थे,
लेकिन हमने उन्हें सिर्फ़ एक तक़रीब और जश्न की हद तक महदूद कर दिया है।
इसलिए कि सर सैयद की तालीमी तहरीक को आगे बढ़ाने में अलीगस का किरदार निहायत ही अहम है।
आज हमारी तमाम क़दीम निशानियों को मिटाया जा रहा है, जिसमें सरकार बढ़ चढ़कर हिस्सा ले रही है। उर्दू
ज़बान की इशाअत व फ़रोग़ के लिए बने इदारों को माली मदद न मिलने की वजह से वो बंद होने की कगार पर
हैं या बंद हो चुके हैं। उर्दू असातज़ा की तकर्रियाँ नहीं हो रही हैं। ऐसे हालात में अलीगस को आज के दिन भी सर
सैयद को याद करते हुए अपने हुक़ूक़ के लिए भी आवाज़ बुलंद करनी चाहिए।
सर सैयद अहमद खान की ज़िन्दगी का ख़ुलासा था तालीम व ताअल्लुम, उनके यौम-ए-वफ़ात पर हम
सब अज़्म करें कि सर सैयद के मिशन को किस तरह आगे बढ़ाया जाए। तालीम, तिजारत, रोज़गार/हुनर,
तजवीज़ व तआवुन की बात होनी चाहिए। अगर हुकूमत की बात की जाए तो यक़ीनन नतीजा सिफ़र ही बरामद
हो रहा है। हर जगह कुछ ऐसे मनुवादी और पूँजीवादी अनासिर हैं जिनकी वजह से अक़लियतों की हालत बद से
बदतर होती जा रही है।
इसी प्यारे मुल्क में आए दिन अक़लियतों को सताने के लिए नित नए क़वानीन जैसे वक़्फ़ बिल, सीएए,
एनपीआर, यूएपीए वग़ैरा नाफ़िज़ किए जा रहे हैं। अलग़रज़ ये कि जब तक तालीम आम नहीं होगी, आम आदमी
इसी तरह शरपसंद अनासिर के हाथों दबा-कुचला रहेगा। इसलिए ज़रूरी है कि सर सैयद के यौम-ए-वफ़ात पर
उन्हें याद करते हुए अपने दिफ़ा की फ़िक्र हम सब को करनी चाहिए और इसके लिए लायह-ए-अमल भी तैयार
करना चाहिए।
इसी लिए सर सैयद के मिशन की अहमियत आज के हालात में मजीद बढ़ जाती है। क्यों न हर सूबे में एक
यूनिवर्सिटी अलीगढ़ की तरह बनाई जाए। तालीम आम हो, सब पढ़े सब बढ़े, जिससे मुल्क व मिल्लत का नफ़ा
हो। मुल्क की ग़ुरबत दूर करने का वाहिद रास्ता ही तालीम है जिसे आज हम सब को आम करने की ज़रूरत है,
यही सर सैयद का मिशन था और हक़ीक़ी मआनों में उन्हें ख़िराज-ए-अक़ीदत भी तभी होगी। रमज़ान-उल-
मुबारक के मुक़द्दस महीने में जब कि मसाजिद आबाद हैं, इन मसाजिद को भी सर सैयद के मिशन को आगे बढ़ाने
के लिए नैज़ तालीम व ताअल्लुम के लिए इस्तेमाल किया जाए तो एक बड़े तबक़े को बड़ा नफ़ा होगा। अख़ीर में
हम तमाम बाशिंदगान-ए-हिंद और तमाम अलीग बिरादरी की तरफ़ से सर सैयद के यौम-ए-वफ़ात पर उन्हें
ख़िराज-ए-तहसीन पेश करते हैं।