सर सैयद एवं अलीगढ़ आन्दोलनः वर्तमान युग मे प्रासंगिकता
- प्रो जसीम मोहम्मद
प्रत्येक देश एवं समाज मे समय समय पर एैसे महानुभाव अवतरित हुए है जिन्होंने न केवल इतिहास मे अपनी अमिट छाप छोड़ी है बल्कि समाज और देशों का भविष्य भी बदला है। ऐसे महापुरूषो की सबसे बड़ी पहचान यह है कि वे अपने जीवन मे अपने कार्यों के लिए उतनी प्रशसां नहीं पाते जितना समय व्यतीत हो जाने के उपरान्त। सर सैयद अहमद खान (17 अक्टूबर 1817- 27 मार्च 1898) ऐसे महापुरूषों की श्रखंला में सर्वाधिक प्रासगिक व्यक्ति है।
सर सैयद अहमद खान भारतीय शिक्षिज पर उस समय अवतरित हुए जब 1857 में पहले स्वतन्त्रता संग्राम की विफलता के बाद भारतीय विशेष रूप से मुसलमान मानसिक और आर्थिक रूप से हाशिये पर चले गए थे। सर सैयद अहमद खान ने न केवल प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम की विफलता तथा उसके कारणों को चिन्हित किया बल्कि उन्होंने मुसलमानों के भविष्य के लिए भी कार्ययोजना बनाई जिसके अन्र्तगत उन्होंने अलीगढ़ आन्दोलन के अन्तर्गत शिक्षा क्रान्ति की।
सर सैयद अहमद खान द्वारा स्थापित मोहम्मद एग्लों। आॅरियनटल काॅलेज जो कालन्तर मे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बना जो उनकी मिसाल है।
परन्तु अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापना ऐसे ही नहीं हो गई। इसके लिए जो संघर्ष जो त्याग उन्हांेने किया वह इतिहास में अपनी मिसाल है।
अगर हम इतिहास के पन्नों को पलटे तो हमें पता चलोगा कि सर सैयद ने केवल एक शैक्षिक संस्थान की स्थापना ही नहीं की है बल्कि एक आन्दोलन जारी किया जो आज भी जारी है।
भारत मे मुसलमानो की तुलना मे हिन्दू संमुदाय ने बहुत जल्दी विज्ञान आधारित अग्रेंजी शिक्षा ग्रहण करना शुरू कर दिया था। राजा राम मोहन राय ने सर हाईड ईस्ट और राधाकन्त देव के साथ सहयोग कर के कलकत्ता मे 20 जनवरी 1817 को हिन्दू काॅलेज की स्थापना की जिसमे अधिकतर अग्रेंजो को ही अध्यापक नियुक्त किया गया। उस समय मुसलमानों के पिछड़ेपन का अनुमान इससे लगाया जा सकता है कि 1852 और 1862 के बीच हाईकोर्ट के प्लीडर के रूप मे 240 भारतियों को नियुक्त किया गया जिसमे केवल एक प्लीडर मुसलमान थ। 1871 में 2141 सरकारी कर्मचारियों की सूचि मे केवल दो और कलकत्ता के स्नातकों की सूचि में केवल एक मुसलमान का नाम मिलता है।
राजा राम मोहन राय की ही तरह सर सैयद अहमद खान ने भी भारतीय मुसलमानों के शैक्षिक सशक्तिकरण के लिए 24 मई 1875 को गाज़ीपुर में मदरसातुल उलूम मुसलमानने हिन्द की स्थापना की और मिस्टर सिडन्स को उसका हेड मास्टर नियुक्त किया। केवल दो वर्षों के बाद 8 जनवरी 1877 को यही स्कूल मोहम्मडन एग्लो ओरियन्टल काॅलेज के रूप में उच्चीकृत हुआ जो 1920 मे संसद के एक विधेयक के अन्र्तगत अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय बना।
चूकि सर सैयद विज्ञान आधारित शिक्षा के पक्षधर थे इसलिए इन्होंने 9 जनवरी 1864 को गाज़ीपुर मे साईन्टिफिक सोसाईटी स्थापना की जिसके दो मुख्य उद्देश्य थे। पहला कला और विज्ञान की उन पुस्तकों जिनको अग्रेंजी भाषा मे होने के कारण मुसलमान पढ़ नही पाते थे उन पुस्तको को उर्दू भाषा मे अनुवाद करना। दूसरा मुख्य उद्देश्य यह था कि एशिया के प्राचीन लेखकों की लुप्त हो चुकी पुस्तकों का पुनः प्रकाशन कराना केवल यही नहीं सोसाईटी की स्थापना के केवल दो माह बाद सर सैयद ने गाज़ीपुर मे एक स्कूल की भी स्थापना की जिसमें अन्य विषयों के साथ – साथ अग्रेंजी, उर्दू फारसी, संस्कृत और अरबी भाषा की शिक्षा का प्रावधान है। इस स्कूल का उद्घाटन राजा देवनारायण सिंह ने किया और सर सैयद ने उन्हें संरक्षक बनाया। सर सैयद का मानना था कि ‘‘कोई कौम जिसको अपने बच्चों और कौम की शिक्षा की तमन्ना हो उस समय तक पूरी नहीं होगी जब तक शिक्षा का नियन्त्रण वह अपने हाथ मे न लेलें।’’ सर सैयद ने आगे कहा कि, ‘‘हिन्दुस्तानियों की प्रगति उस समय होगी जब वे अपने आपसी चन्दे, अपने निजी प्रबन्ध और अपने बल पर बिना सरकार और उसके अधिकारियों के हस्तेक्षेप के अपनी इच्छा और अपने सम्मान के अनुकूल अपने बच्चों को शिशा दें।’’ सर सैयद ने साईन्टिफिक सोसाईटी द्वारा मुसलमानों को शिक्षा का आधार प्रदान करने की चेष्टा की।
सर सैयद के चिन्तन मे शिक्षा एक महत्वपूर्ण अंग है परन्तु वह अन्तिम उद्देश्य नहीं था। सर सैयद के लिए शिक्षा भारतीय मुसलमानों के सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक सशक्तिकरण का माध्यम थी। सर सैयद के अलीगढ़ आन्दोलन को केवल शिक्षा तक सीमित करना स्वयं उनके साथ अन्याय है। वे मुसलमानों की आर्थिक स्थिति के प्रति चिन्तित थे। सर सैयद ने मुसलमानों की खराब आर्थिक स्थिति के कारणों पर विचार करते हुए लिखा, ‘‘वह देश आर्थिक रूप से सम्रध नहीं होता जिसमे दूसरे देशों के उत्पादनों की तिजारत होती है बल्कि वह देश सम्रध होता है जिसके उत्पादन की तिजारत को दूसरे देशों मे तरक्की होती है वे आगे लिखते है, ‘‘समुद पर हमारा कोई अधिकार नहीं है अन्य देशों से हमारा व्यापरिक स्थापित सम्बन्ध नहीं है। हम को चाहिए कि दूसरे देशों मे अपनी आढ़न कम्पनियाँ स्थापित करें।‘‘
एैसा कोई क्षेत्र नहीं है जिसे सर सैयद ने नहीं छुआ हो। मेरे विचार से सर सैयद का सम्पूर्ण चिन्तन अलीगढ़ आन्दोलन का हिस्सा है परन्तु यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमने उनके विभिन्न क्षेत्रो में योगदान को भुला दिया है। शायद बहुत से लोगों के लिए यह आश्चर्य का विषय होगा कि सर सैयद ने कृषि क्षेत्र पर अपने विचार प्रकट किये क्योंकि वे जानते थे कि भारत कृषि प्रधान देश है। सर सैयद ने एक पुस्तक कदीम-देही हिन्दुस्तान लिखी जिसमे भारत की प्राचीन कृषि व्यवस्था का परिचय कराया गया। केवल यही नहीं उन्होंने अपनी साईन्टिफिक सोसाईटी द्वारा कृषि विज्ञान पर प्रकशित राबर्ट स्काट बर्न और चाल्र्स टोन्सन की पुस्तकों का अनुवाद उर्दू भाषा मे प्रकाशित कराया।
अलीगढ़ आन्दोलन का आवासीय शिक्षा और तरबियत एक महत्वपूर्ण अंग था सर सैयद का मानना था कि शिक्षा का उद्देश्य केवल आधूनिक शिक्षा और विज्ञान क्षेत्र मे स्नातक अथवा स्नाकोतर उपाधियाँ नहीं है बल्कि उनके साथ पहली आवश्यक है कि विद्यार्थी एक साथ रहने, खाने, पीने और पारस्पारिक सम्बन्धों के नैतिक पक्ष को समझे। उन्होंने अपने एक भाषण मे कहा, ‘‘केवल तालीम किसी काम नहीं है जब तक उसके साथ तरबियत न हो। तरबियत के मायने यह नहीं है कि बच्चा सिमट कर बैठ जाए और केवल हमारी हाँ मे हाँ मिलाये। उनके लिए सच्चाई, नेकी और तरबियत वैचारिक आज़ादी होनी चाहिए। यह सब बातें घरेलू संस्कारो से नहीं आ सकती। जब तक उनके लिए एैसी शैक्षिक संस्था न हो जहाँ सिवा तालीम और तरबियत के सिबा कुछ न हो।
सर सैयद का मत था कि बच्चों को उनकी मातृ भाषा मे ही शिक्षा प्रदान की जानी चाहिए। सर सैयद ने कहा, ‘’यदि ज्ञान की प्राप्ती विदेशी भाषा के माध्यम से की जाए तो उस को सीखने मे बहुत समय लगेगा। किन्तु जब छात्र अपने देश की भाषा मे ज्ञान प्राप्त करता है तो भाषा सीखने पर उसका नष्ट नहीं होता है।‘‘
हमे यह ध्यान रखना चाहिए सर सैयद अहमद खान केवल एक व्यक्ति का नाम नहीं है। वे स्वयं अपने आप मे एक प्रभावी आन्दोलन थे जिसे अलीगढ़ आन्दोलन का नाम दिया गया। इसी प्रकार शिक्षा अलीगढ़ आन्दोलन का केन्द्र बिन्दु नहीं है। शिक्षा केवल भारतीय मुसलमानों के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सशक्तिकरण का माध्यम है।
सर सैयद के विचार उनका अलीगढ़ आन्दोलन आज भी प्रासगिक है परन्तु हम उसे धारातल पर उतार नहीं पा रहे है। आवश्यक यह है हम सर सैयद के सपनों को साकार करे और उसके लिए हमें उस चिन्तन का अपनाना होगा जिसके अन्र्तगत उन्होंने अपने सामाजिक और धार्मिक दायरे से बाहार निकल कर कार्य किया।
(लेखक अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के दानदाता सदस्य एवं पूर्व मीडिया सलाहकार है। लेखक से सम्पर्क profjasimmd@gmail.com किया जा सकता है)